Sunday 16 January 2022

कितना बेबस है मज़दूर.... ग़ज़ल

#ग़ज़ल

कितना    बेबस   है   मज़दूर
थक  कर  बैठा   है   जो  चूर

मिट्टी   मिट्टी   में   मिलता  है
फिर    काहे   को  है मग़रूर

उसकी   आँखें   मैखाना   हैं
देख    सभी    होते   मख़मूर

साथ वो सबकुछ ले जाता है
चूड़ी, बिंदिया, और   सिन्दूर

हर  सूँ  उसका   ही  चर्चा  है
लड़की   है    या   कोई   हूर

हिंदू - मुस्लिम ख़त्म करो भी
जो    कहिए   सब  है  मंज़ूर

सारी  दुनियाँ  घूम   चुका था
पीकर    वो    बासी    अंगूर

हसरत सबकुछ हार चुका है
बनने    में     थोड़ा    मशहूर

Frank Hasrat

Saturday 15 January 2022

आसनसोल (यात्रा वर्णन )

आसनसोल
मोहब्बतों का शहर......
रात के सन्नाटे में सिसकियाँ कानों को भेद रही थीं ,दिल बैठा जा रहा था, इतना मज़बूर और लाचार मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था। धीरे-धीरे सिसकियाँ कब जूतों की खटपट में बदल गयी मालूम भी न हुआ।
आँखों का ये आलम था मानों समंदर में तूफ़ान,सबके लब सिल से गये थे,ऐसे में मेरा ऊपरी दिल से मुस्कुराना मुश्किल भी था और मज़बुरी भी।

हर किसी से मिलना और रुख़सती  का मुतालबा करना, जिस्म के अजज़ा ( हिस्से) से एक-एक करके जान निकलने जैसा था। और आसनसोल से मेरा निकलना जिस्म से रूह का निकलना था।

पुरानी डायरी के अभी कुछ ही वरक उधेड़े गए थे कि वक्त कब गुज़र गया पता ही नहीं चला, लफ़्ज़ों की गर्माहट घड़ी की टिक-टीकाहट पर जाकर ठण्डी हो जाना चाहती थी।

कमरे में मुट्ठी भर रौशनी थी,नज़रे एक दूसरे से लुक्का छिपी खेल रही थीं, वक़्त थम सा गया था शायद वो भी हमारे जैसी ही किसी पुर आशोब कैफ़ियत मैं मुब्तिला था। या फिर वो ये समझ चुका था कि हमसब उसे रोकना चाहते थे......जो नामुमकिन था। 

लेकिन वक़्त कहाँ रुकता है? मोबाइल की घण्टी से हम सब की चुप्पी टूटी....वो भाभी का कॉल इस वक़्त ....अच्छा! हाँ वो जाने का...शायद.. मेरा शक़ यक़ीन में बदल गया हाँ हाँ बस बस अभी निकलने ही जा रहे हैं। ठीक है आइए......

मैं एकबारगी उठ खड़ा हुआ अंकल-आँटी भी उठ गए.…हसरत रुकिये... ये आवाज़ इतने में ही सिमट गयी मैं धीरे-धीरे बढ़ने लगा, मेरे सर पर न जाने कैसा बोझ था क्यों था कुछ ख़बर नहीं....वो दोनों लोग भी ख़ामोशी से मेरे पीछे हो लिए.....

मैं बक-बक कर रहा था क्या?? कुछ याद नहीं, क्यों?? मालूम नहीं।
दरवाज़े पर खड़ा नवाब अपनी बुझती हुई आँखों से मुसलसल जंग लड़ रहा था, पगली मेरे चेहरे में न जाने क्या पढ़ने की कोशिश कर रही थी,भईया-भाभी कुछ कहते कहते रुक गए......

गली में थोड़ी बहोत रौशनी थी दाहिनी तरफ़ दो कुत्तों के सोने का एहसास हो रहा था अँधेरे की वजह से साफ़ ज़ाहिर तो नहीं था। 
 
मैंने नवाब को गोद में उठा लिया वो चुप था कोई हरकत नहीं,उसने बड़ी ख़ामोशी से मेरे माथे को चूमा,फिर दोनों गालों पर बोसा दिया उसकी चंचलता न जाने कहाँ खो गयी? मैं भी कुछ सोच समझ नहीं नहीं पा रहा था,
पगली से हाथ मिलाया उसका हाथ बिल्कुल ठण्डा था। और फिर हसरत भरी निगाहों से सबकी तरफ़ देखा  मैं उस मंज़र को क़ैद करना चाह रहा था। 

रुक जाइए न जी.... कल ही तो आये हैं फिर न जाने कब आइयेगा?? दिल तो मेरा भी यही चाह रहा था लेकिन वक़्त को ये मंज़ूर नहीं था मैं सिर्फ मुस्कुराकर रह गया.......शायद इस बेबसी का इससे अच्छा जवाब मेरे पास नहीं था।
चलें? किसी ने कुछ कहना ज़रूरी नहीं समझा सब की चुप्पी को मैंने हाँ मान लिया......

अल्लाह हाफ़िज़......ये कहकर मैं निकल पड़ा...नवाब और पगली दोनों की आवाज़ें और चेहरे धीरे धीरे कोहरे की वजह से ओझल हो गए.......
मद्धम सी आवाज़ आई अल्लाह हाफ़िज़ हसरत भाई.... अल्लाह हाफ़िज़.... बहोत आहिस्ता से कहा शायद ये अल्फ़ाज़ मेरे कानों तक ही पहुंचकर दम तोड़ दिए......

सामने की गली में साज़िद भाई की चाय की दुकान उनके ख़ुद के मकान में थी।
रात के तक़रीबन सवा बारह बज रहे होंगे सभी लोग मेरे मुंतज़िर थे....
ट्रेन घण्टे दो घण्टे देरी से थी तो मैं भी इत्मिनान से था।
चूँकि रात का वक़्त,और कड़ाके की ठण्डी, तो उन्होंने बहोत ज़िद की स्टेशन तक चलने की लेकिन मेरे मुसलसल मना करने पर वो मान गए। जैसे किसी बच्चे की ज़िद के आगे बाप मज़बूर हो गया हो.....

बड़ी अप्पी ने सफर के लिए सेब, केक वगैरा बैग में ज़बरदस्ती रख दिया। मैं लाख कहता रहा कि मैं राश्ते में कुछ खाना पसंद नहीं करता फिर भी.....
मैंने इजाज़त ली और धीरे धीरे उनकी नज़रों से ओझल हो गया जैसे शाम का सूरज आहिस्ता आहिस्ता दिन की रौशनी चुराकर अँधेरों में डूब गया हो......

मैं इन्हीं ख्यालों में डूबा, रब से उन सबकी सलामती की दुआएँ करता हुआ जा रहा था कि अचानक! 

 _आगुन! आगुन लगे गे छे रे, ओरे तारा तोरी बाहर होय जाव, आगुन लगे छे, तारा तोरी कोरो, जालना भेंगे बाहर होय जाव, आगुन..._ 

किसी ग़रीब का महल जलाकर कोई सरफिरा अपने हाथ पाँव सेक रहा था।
मैं अचानक! उस ख़याल से बाहर आ गया, झुग्गी में लगी आग में मेरे सभी ख़्याल एक लम्हें में झुलस गए...

मैं अब उस इंसान की फिक्र में था जिसके हाथ पाँव काटकर उससे ज़िंदा रहने की शर्त रखी गयी हो लेकिन वो बाहिर नहीं आ रहा था वो उसी आशियाने में दफ़्न हो जाना चाहता था।
और आसपास वाले उन्हें बचाने की हर मुमकिन कोशिश में लगे हुए थे। 
मेरे क़दम रुक गए, भीड़ उमड़ चुकी थी, वो अब ख़तरे से बाहर था। मैं चल पड़ा और कुछ ही देर में, मैं आसनसोल स्टेशन पर पहुँच गया। ट्रेन का स्टेटस चेक किया, गाड़ी चार नम्बर प्लेटफार्म पर आने वाली थी, ठण्ड भी ठीक-ठाक थी, प्लेटफार्म पर गिने चुने लोग थे जो कम्बल ओढ़े सो रहे थे ऐसा महसूस हो रहा था कि कब्रिस्तान में कुछ ताज़ी कब्रें हैं ज़्यादातर उसी गाड़ी के इंतज़ार में दुबके हुए  थे।
मैं भी उन दो ख्यालों की कम्बल ओढ़े  बर्फ़नुमा स्टील की सीट पर बैठ गया, जो अमूमन स्टेशनों पर तीन-तीन के जोड़ी में लगी रहती हैं।
उनपर बहोत इत्मिनान से टेक लगाकर आराम किया जा सकता है। इन दो दिनों में शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से मैं थक चुका था। बैठते ही आँखें बंद होने को मज़बूर थीं और ट्रेन भी किसी मस्त मतवाली हाथी सी चल रही थी .....जिसका इंतज़ार हम सभी कर रहे थे।

रवानगी के वक़्त मैं इसी फ़िक्र में था कि....इतने दिनों बाद जा रहे हैं...लोग किस तरह से पेश आएंगे?क्या अब भी पहले जैसी बात होगी या कोरोना ने सबकुछ बदल दिया होगा?
लगातार ऐसे सवालात मेरे ज़हनी तवाज़ून में खलल पैदा कर रहे थे।
आपातकालीन खिड़की से आसनसोल जंक्शन लिखा नज़र आया मैं फ़ौरन ट्रेन से बाहर आया और बाहर निकलते ही सूरज की किरणों ने मेरा इस्तक़बाल किया...
यहां बनारस के मुकाबले सर्दी बहोत कम थी
मैंने जैकेट उतारकर बैग में रख लिया ज़रा सा ख़ुद पर नज़र फेरी और फिर चल पड़ा.....
ज़ेहनी जंग अभी भी ख़त्म नहीं हुई थी बल्कि सवालात और ताक़तवर होकर चोटकर रहे थे...

एक एक वक़्त क़ीमती था इसको मद्देनज़र रखते हुए  मैंने बैटरी रिक्शा लिया एक साहब पहले से उसी में बैठे थे। 
पहली बार रिक्शे वाले ने जो 50 रुपये का चूना लगाया था  वो सोचकर मैं बे ताहशा हँस पड़ा...

क्या हुआ बेटा?  कुछ नहीं अंकल...मैंने बात ख़त्म कर दी क्योंकि मुझे अपनी नादानी अच्छी लग रही थी। और मैं उन ख़्यालों से बाहर नहीं आना चाहता था।

आप भी एग्जाम सेंटर जा रहे हैं?  जी नहीं मैं कॉलेज को जा रहा हूँ। बातों बातों में मालूम हुआ वो टीटी हैं और जैक एंड ज़ील स्कूल के पास रहते हैं। बस्टिन बाज़ार से बात करते हुए हम दोनों रूमी टावर.... जहाँ हम कॉलेज के दिनों में रहा करते  थे उसके सामने बड़कू चाय वाले के पास रुके, दोनों ने चाय पी,
बड़कू महज़ नाम का था असल में वो बहोत नाटे क़द का आदमी है जब मैं पहली दफ़ा आया था आसनसोल तो दो दिन में मैंने कमो बेश बीस दुकानों पर चाय पी लेकिन कहीं की चाय पसन्द नहीं आयी आख़िर में सीनियर्स ने इन्ही का हवाला दिया। और इनकी सबसे अच्छी बात एक बार पीने के बाद आप उसी में दुबारा भी ले लें फिर भी पैसा उतना ही देना है। 

मैं दरो दीवार को देखता इंसानों के बीच शनासा चेहरा ढूँढता आगे बढ़ता जा रहा था.......

मैंने नवाब और पगली के लिए उनके पसन्द की चॉकलेट ख़रीदी, नुक्कड़ से गरमा गरम जलेबी ली......और फिर उन्हीं सवालों में उलझा कब दरवाज़े पर पहुँच गया मालूम ही नहीं चला।

दरवाज़े पर ताला?? मुझे बहोत हैरत हुई, फिर याद आया कि मैंने जल्द आने की ख़बर तो दी थी लेकिन तारीख़ और दिन का ज़िक्र न हुआ था।
बगल में खड़ी एक 50-55 साल की औरत ने तआरुफ़ दरियाफ़्त किया, शायद वो नयी थीं,या उनके लिए मैं.. रिलेटिव हैं?? मैंने कुछ कहना मुनासिब नहीं समझा
अंकल को कॉल किया,वो पास में ही किसी दुकान पर थे,फौरन हाज़िर हुए, हम दोनों अंदर दाख़िल हुए मामूल के मुताबिक़ आँटी सो रहीं थीं।
सुबह के क़रीब 9 बज चुके थे वो वो फ़ज़र में उठने के बाद 7 से 9 तक सोती हैं। मैंने आवाज़ लगाई वो फौरन उठकर बैठ गयीं, 
वो इसलिए भी हैरत में थीं क्योंकि उन्हें मेरे आने की इत्तेला न थीं।
मैने ही अंकल को मना किया हुआ था। 
आप? अचानक? मुझे यक़ीन नहीं हो रहा है हसरत... की आप मेरी आँखों के सामने खड़े हैं....
उन्होंने मेरे सर और चेहरे पर हाथ फेरा यूँ महसूस हुआ जैसे कोई अंधेरे में किसी चीज़ को छूकर उसकी शिनाख़्त करने की कोशिश कर रहा हो
जी मैं ही हूँ। आप कोई ख़्वाब नहीं देख रही हैं।
जब उन्हें यक़ीन हो गया कि वो वाक़ई में ख़्वाब नहीं देख रही हैं तो वो अंकल पर गुस्सा करने लगीं की आप बताते न जी
मैं कुछ बनाकर रखती नाश्ता वैगरह पहले से आप बताए क्यों नहीं....देखो न मेरे ज़ेहन से उतर गया था, ऐसे कैसे उतर गया???एक बार भी बताए होते आप....
जी वो मैंने ही मना किया था; क्योंकि मैं आपकी नींद में ख़लल नहीं चाहता था। 
हाँ बड़ा इसमें ख़लल की क्या बात थी बेटे के आने से माँ को ख़लल पड़ती है...हम और अंकल  हँस रहे थे....

बहरहाल जल्दी से दोनों ने मिलकर नाश्ता बनाया हम सब ने नाश्ता किया , साथ ही सुलेमानी चाय! का दौर भी चला, और मैं कॉलेज के लिए रवाना हो गया। 
कॉलेज से जैसे ही फ़ारिग हुआ पास में ही मुज़फ्फर भाई के घर चला गया, (कॉलेज का ज़िक्र फ़िर कभी) वहाँ भी शाद, दानिश, आंटी और भाभी से मुलाक़ात हुई अंकल अंडाल गए हुए थे और भईया दुकान पर थे। 
फिर बर्नपुर में एक दो अहबाब के घर जाना हुआ वहाँ पर भी लोगों ने ख़ूब प्यार और दुआयें दीं, इधर अंकल का कॉल पर कॉल आ रहा था क्या जी कहाँ हैं??कबतक आ रहे हैं?
आईए खाना पर इंतज़ार कर रहे हैं हम दोनों...मैं यही सोच रहा था कि काश! मेमोरी कार्ड की तरह पेट कार्ड भी होता ताकि मैं सबका दिल रख पाता...लेकिन  अफ़सोस मुझे उसी मुख़्तसर से पेट से सबकी उम्मीदों पर खरा उतरना था  जिसे मैं पिछले छः सात महीनों  से भूखा रखकर बिल्कुल छोटा कर चुका था।

किसी तरह अंकल को मनाया की मैं दोपहर में नहीं आ सकूँगा आप लोग खा लें मैं जल्द आने की कोशिश करूंगा इंशाल्लाह! जल्दी आइयेगा.... हसरत भाई कहाँ हैं आप?? आइये न जी, हसरत भाई....आईयेगा आप? नवाब और पगली भी मेरा बेशब्री से इंतज़ार कर रहे थे। 

दोस्तों से इजाज़त ली और सीधा घर आ गया (अंकल के यहाँ) मेरे आते ही अंकल ने आवाज़ दी दोनों बच्चे (नवाब और अदीबा) जिसे मैं प्यार से पगली कहता था। दौड़कर आये और मुझसे लिपट गए।
ऐसा लग रहा था वो मुझे कई वर्षों से जानते हैं.....कुछ ही देर में मैं भी मैं नहीं रहा बल्कि सात आठ साल का बच्चा बन चुका था।जिसे किसी चीज़ की फ़िक्र न थी।

हम तीनों ने ख़ूब मस्ती की पूरे बेड का कचुम्मड़ निकाल डाला, आँटी इन सब हरकतों से वाकिफ़ थीं वो  आते जाते ठहर कर देखती और मन ही मन मुस्कुराकर  चली जातीं...
शायद वो बचपन की नादानियाँ बेहतर समझ रही थीं।

दो घण्टे हम तीनों ने ख़ूब मज़े में बिताए फिर पगली और नवाब मेरा हाथ खींचते हुए अपने  घर ले गए। वहाँ भी चाय नाश्ता मुझे... अब डर लगने लगा था, पेट भी न जाने किस कश्मकश से गुज़र रहा होगा कि पिछले छः महीने से ज़ालिम ने न खाकर तड़पाया और अब खाकर.......
परवेज़ अंकल(रूमी टावर रुम मालिक)  का कॉल आया रात के क़रीब 9 बज रहे थे..... मैंने अंकल से इजाज़त ली उन्होंने  जल्द लौट आने की बात कही....परवेज़ अंकल का घर 5 मिनट  की दूरी पर ही था। 

घर पहुँचते ही परवेज़ अंकल ने आंटी से खाना लगाने को कहा मैं करूँ तो क्या करूँ??.....मैंने सीधा हाथ खड़ा कर लिया.....अंकल आप खाने के अलावा जो कहें मंज़ूर है खाना नहीं....वो बार बार ज़िद करते रहे लेकिन मैंने न खाने की क़सम खा रखी थी... खाता कहाँ पेट हिचकोले ले रहा था।
और चूँकि दिन में अंकल आँटी को यक़ीन दिलाया था कि रात में साथ डिनर करेंगे तो  अंकल मेरी जान भी खा जाते और ये उनका हक़ भी था..…

बात कुछ पीने पिलाने पर तय हुई मेरे बहोत समझाने के बाद कि अंकल आप समझदार हैं आप समझ सकते हैं। फिर उन्होंने कॉफी बनवाई।  कॉफी पीकर उनसे इजाज़त लेकर चला आया।
इधर अंकल दस्तरख्वान पर बैठे मेरा इंतज़ार कर रहे थे। हम सब ने खाना खाया अंकल की मोहब्बत भरी डांट और आंटी की बे इन्तेहाँ ग़ुज़ारिश के आगे मैं मज़बूर था।
फिर घण्टों हम तीनों बातें  करते रहे...अंकल के खर्राटों ने रात के एक पहर गुज़र जाने की ख़बर दी फिर न जाने कब सुबह हो गयी।

दूसरे दिन का कोई खास प्लान न था कुछ लोग रह गए थे मिलने को जिन्हें मैं ख़बर दे चुका था कि मैं आसनसोल में ही हूँ। वक़्त की नज़ाकत को समझते हुए मैंने चंद अहबाब को ही बताया था।

सुबह का नाश्ता करके मैं साजिद भाई से मिलने चला गया साजिद भाई की बुदा में  चाय की दुकान थी  में, मैं अक्सर उन्हीं के यहाँ चाय! पिया करता था.....बड़े नेक दिल इंसान थे मिलकर अपनापन लगता था। दो सालों में बिल्कुल फैमलियर हो गए थे।
मेरे आने की कोई ख़बर न थी मैं पहुँचा तो उन्हें हैरत हुई आप अचानक!
उन्होंने फौरन काशिफ़ा और ईरम को आवाज़ लगाई वो दोनों अभी सो रही थीं वहाँ सुबह देर से होती है।

घर पर बुलाकर ख़ूब आव भगत किया उन लोगों ने...मैं शर्मिंदा था उनकी बे इन्तेहाँ मोहब्बत और ज़र्रा नवाज़ी के आगे मैं ख़ामोशी से दुआएँ कर रहा था उनके हक़ में........
जल्दी जल्दी वहाँ से निकले और एक अहबाब को कॉल किया वो आये हम लोगों ने बाज़ार का मुआयना किया फिर ये हुआ कि रेलपार ही चला जाए ताकि शिकायतें कुछ कम रह जाएं।

फिर वहीं मुलाक़ात का सिलसिला चला दोपहर में भाभी के यहाँ दावात भी थी।जल्दी-जल्दी वहाँ से वापिस हुआ ।
फिर बच्चों के साथ मस्ती शुरू हुई फिर हमसब ने खाना खाया और वही टॉनिक(चाय!) पी और वहाँ के मामूल के मुताबिक़ क़ैलुला भी करना चाहा लेकिन बच्चे कहाँ चैन लेने दें.....
*लेकिन वो बेचैनी ही चैन की सबसे बड़ी वजह थी*

अंकल आंटी के यहाँ पहुंचा वहाँ फिर वही टॉनिक मैंने चाय पीते हुए अंकल से इस बात का ज़िक्र भी किया मेरी रगों में खून की जगह चाय! ही निकलेंगे
सबने ज़ोर का ठहाका लगाया......

मुझे सर! से मुलाक़ात के लिए निकलना था और अंकल के यहाँ मेहमान भी आने वाले थे तो अच्छा मौक़ा था वरना मुझे बाहर जाने की आज़ादी न थी। हाँ बहोत ज़रूरी हो तो अलग बात थी।
यानि वो अपनी नज़रों से दूर नहीं होने देना चाहते थे....

ये अच्छा मौका था मेरे लिए कॉलेज गया सर से मुलाक़ात हुई, कॉलेज में कुछ भी पहले जैसा नहीं था सबकुछ बदल चुका था, कुछ कोविड का असर था और कुछ मेरे सब्र का........

वहाँ से फ़ारिग होकर मैं सीधे अंकल के यहाँ पहुँचा चूंकि बच्चों को आवाज़ लगाते हुए आया था तो वो कुछ ही पल बाद मेरे पास थे। पगली ने ज़िद मचा रखी थी कि भईया हम आपको मैगी बनाकर खिलायेंगे। हमदोनों गए दुकान से मैगी लाये और यक़ीन मानिए लज़ीज़ मैगी बनाई अदीबा ने और इसका कोई दूसरा गवाह भी मौजूद नहीं क्योंकि उसने सिर्फ़ मेरे लिए ही बनाई थी  किसी और का हिस्सा उसे गवाँरा भी न था।

हम दोनों ने ही खाया फिर वही पुराने दिन की बातें निकली वक़्त इतनी तेज़ी से भाग रहा था जैसे मुठ्ठी से रेत फिसल रही हो।
ट्रेन हावड़ा से 8:25 पर निकलनी थी लेकिन किसी वजह से उसको रीसेड्यूल करके 1 घण्टा 35 मिनट की देरी से कर दिया गया था। 
मैं इससे दुःखी नहीं था। लौटना बहोत ज़रूरी था लेकिन दो चार घण्टों की ताख़ीर,दिल को सुकून पहुंचाने का सबब बन रहा था।

अंकल के यहाँ आया जो मुट्ठी भर सामान थे और लम्हों का एक विशाल गट्ठर उसको समेटा और तमाम उलझनों के बीच मुस्कुराता हुआ बैठ गया।
जैसे रोता हुआ बच्चा माँ की गोद में बैठ गया हो......मेरा मुस्कुराना आँधियों में चिराग़ जलने के मानिंद था
मेरी गोद  में बैठा नवाब आज बहोत ख़ामोशी से हमसब की बातें सुन रहा था।
जबकि इतना ख़ामोश वो पहले कभी नहीं होता था।

नवाब ने एक लंबी साँस ली और सिसकते हुए उसने अपने दोनों हाथ  मेरे दोनों गालों पर रखकर सहलाते हुए बोला भईया....
उठिएगा हसलत भाई??  चलिएगा कि नहीं??? रुक जाइये न हसलत भाई मेरे घर में रुक जाइए...... 
सिसकियाँ बहोत साफ़ सुनाई दे रहीं थी....मुझसे बर्दाश्त न हुआ आंखों का समंदर सभी बेड़ियाँ तोड़ देना चाहता था। 
सिसकियाँ अब ट्रेन के हॉर्न में तब्दील हो चुकी थीं।

मैं खड़ा हुआ तो देखता हूँ कि ट्रेन के आने का अनाउंसमेंट हो रहा है। प्लेटफार्म पर मातम पसरा हुआ है। मेरे सामने एक बूढ़े अंकल खड़े हैं। बगल में एक बूढ़ी औरत ठण्ड में ठिठुरकर अभी भी सिसकियां ले रही थी।
 वो बिल्कुल मेरी सीट के नीचे ज़मीन में सीमटकर बैठी थी। मेरी गोद में मेरा पिट्ठू बैग था जिसके दोनों बंधन मेरे गालों में सटे हुए थे। 
मैंने कम्बल,बैग,और बिखरे अरमानों को इकठ्ठा किया और ट्रेन में बैठकर काशी! की तरफ़ रवाना हो गया जैसे आख़िरी उम्र में कोई मायावी दुनियाँ का त्यागकर मोक्ष की प्राप्ति के लिए निकल पड़ा हो...........

*फ्रैंक हसरत*
चंदौली-उत्तरप्रदेश
frankhasrat@gmail.com

तुम शायद सबकुछ भूल गये..........

*तुम शायद सबकुछ भूल गए जब बात हमारी होती थी.........२* वो चाँद कभी होले - होले आग़ोश में यूँ आ जाता था मैं उसका चेहरा पढ़ता था मैं उसका सर सहल...